भाषा एक वर्गीय मसला है
वे शहर तक चले आए हैं। वे
जो दूर-देहात के बच्चे हैं। पढ़ाई की लालसा उन्हें शहर के विश्वविद्यालयों तक खींच
लाई है। शहर की हिंदी को बोलना वे धीरे-धीरे सीख रहे हैं। वे धीरे-धीरे शहर को भी
सीख रहे हैं। शहर एक मानक बनाता है,
भाषा में भी, जीवन में भी। वे
सोचते रहे हैं कि उनका जो गाँव है,
उनका जो देहात है वह हिंदी ही बोलता है। गाँव सिर्फ बोलता था लेकिन शहर है जो कुछ
और तरह की हिंदी समझता है। शहर हिंदी सिर्फ बोलता नहीं, वह हिंदी को लिखता है। भले ही वह बोल रहा हो। वह एक लिखी जाने
वाली मानक हिंदी को बोलता है। गाँव में जिसे वे हिंदी समझते थे वह हिंदी की बस एक
बोली थी। ऐसे में वे, जो अभी-अभी
विश्वविद्यालयों में दाखिला लेकर शहर में बस रहे हैं, उन्हें अपनी बोली ठीक करनी पड़ रही है। उन्हें अपना सलीका ठीक
करना पड़ रहा है। यह उन सभी बच्चों की कहानी है जो गांवों से शहर की तरफ पढ़ाई के
लिए आए हैं। गाँवों में जहाँ वे हिंदी माध्यम में पढ़ते रहे हैं। अब यहाँ उनकी पढ़ाई
और भाषा के साथ लड़ाई दोनों है।
विश्वविद्यालयों में
स्थानीय विविधताएँ बढ़ जाती हैं। अलग-अलग क्षेत्रों से और अलग-अलग वर्गों व जातियों
के लोग एक साथ यहाँ पहुँचते हैं। अब तक के स्कूल का जो दायरा स्थानीय था वह अब
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हो जाता है। यहाँ गाँवों और देहातों से आने
वाले बच्चों को किताब और ज्ञान की भाषा आतंकित करती है। निश्चित तौर पर दुनिया का
व्यापक ज्ञान एक भाषा में ही भरा हुआ है। वह अंग्रेज़ी ही है। अन्य भाषाओं में
ज्ञान का जो स्रोत है वह भी इसी भाषा से होता हुआ पहुंचता है। कम से कम अकादमिक स्तर
पर तो हम इसे देख ही सकते हैं। भारत जैसे बहु-भाषी राष्ट्र में अंग्रेज़ी भाषा
ही ज्ञान बन चुकी है। आपस में दूसरी भाषाओं के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान भी
बेहद सीमित हैं।
हिंदी और ज्ञान
हिंदी में भी ज्ञान की
स्थिति यही है। ज़्यादातर ज्ञान यहीं से आयातित हो रहा है और हिंदी भाषियों तक
पहुँच रहा है। क्या हमने कभी सोचा कि एक बड़ी आबादी की भाषा होने के बावजूद भी हिंदी
में ज्ञान का उत्पादन कम क्यों रहा है? उसका अपना मौलिक चिंतन आयातित सा क्यों है?
इसे समझने के लिए हमे दो चीजों को समझना होगा।
एक तो वर्ण परंपरा और
जातीय व्यवस्था ने एक बड़े समुदाय तक ज्ञान को पहुँचने और ज्ञान के उत्पादन को
निषिद्ध किए रखा है। ऐसे में वह बहुत कम आबादी थी जिसकी ज्ञान पर कब्जेदारी रही।
ज्ञान का निर्माता भी वही बना बैठा रहा। इस ऐतिहासिक स्थिति ने ज्ञान के उत्पादन
को आबादी के लिहाज से बहुत कम कर दिया और ज्ञान एक सीमित वर्णों और बाद में सीमित
वर्गों तक सिमटा रहा। आज भी वही वर्ग ज्ञान के स्वरूप को तय कर रहा है। वह अपने
उच्च वर्णता की वजह से यदि अन्य को आने से रोक नहीं पा रहा तो अपने संसाधनों से
आतंकित और डरा ज़रूर रहा है।
अब जबकि आरक्षण और
महिलाओं के संघर्षों ने ज्ञान में अपनी दखल देनी शुरू कर दी है तो यह तकरीबन नब्बे
प्रतिशत की आबादी है जो इस प्रक्रिया में शामिल हुई है। ऐसे में अभी उसके पास अवसर
कम हैं और ऐतिहासिकता में जो वंचना रही है उसका बोझ अधिक है। वह अपनी भाषा में
सीखने-समझने की कोशिशों में जुटा है। बावजूद उसकी वर्गीय स्थितियाँ भी उसे रोक रही
हैं। वह समाज, जो ज्ञान की
परंपरा से वंचित रहा था उसके पास संपत्ति की भी कमी रही है। ज्ञान ने संपत्ति और
संसाधन पर भी कब्जेदारी बनाई। ऐसे में यह बड़ी आबादी उन सभी संसाधनों से वंचित रही है
जो अगड़े वर्गों के पास है। अब जबकि वह ज्ञान उत्पादन और अकादमिक व्यवस्था में आ
रहा है तो उसे कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मसलन उसके पास उसकी
भाषा में कम किताबें हैं। उसके पास उसकी भाषा के अध्यापक नहीं हैं। वह अपने उन
सहपाठियों के रहन-सहन और वर्गीय सुविधाओं को देख आतंकित भी होता है। ऐसे में हिंदी
माध्यम में जो बच्चे पढ़ने आ रहे हैं उन्हें इन सारी चीजों से लड़ना है और लड़ कर आगे
बढ़ना है। एक बड़ी आबादी जो अब तक श्रम और गुलामी की स्थितियों में रही है। जिसके
पास मेहनत करने का माद्दा रहा है जब वह ज्ञान के उत्पादन में आएगी तो भाषा के ज्ञान
को और बेहतर समृद्ध करेगी।