क्या हिंदी सचमुच एक खलनायक है?
भारत में हिंदी को लेकर चलनेवाली बहसों में दो तरह के मोर्चे दिखाई देते हैं. पहले मोर्चे वालों द्वारा हिंदी को भारत की सबसे बड़ी और महान भाषा करार दिया जाता है, जो वास्तव में भारत की राष्ट्रभाषा होने का हक रखती है- लेकिन संविधान बनाते वक्त जिसे अंग्रेजी के साथ भारत की दूसरी राजभाषा बनाकर और इस तरह से उसे अंग्रेजी से नीचे दर्जा देकर एक बड़ा अन्याय किया गया. ऐसा माननेवाले हिंदी बोलनेवालों की संख्या के बल पर हिंदी के लिए सभी भाषाओं से ऊंचे सिंहासन की मांग करते हैं. इसके विरोध में दूसरा पक्ष उन लोगों का है, जो हिंदी को एक वर्चस्ववादी भाषा करार देते हैं और हिंदी को एक हमलावर भाषा के तौर पर देखते हैं, जिससे दूसरी भाषाओं और उन भाषाओं को बोलनेवालों की हिफाजत किए जाने की जरूरत है. भारत की भाषा राजनीति ये दोनों पक्ष एक दूसरे से लगातार टकराते रहे हैं और रह-रहकर विवादों को जन्म देते हैं. बंगाल और दक्षिण भारत में तो हिंदी विरोध एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है. भारत का बुद्धिजीवी तबका कमोवेश इस दूसरे वाले पक्ष के साथ रहा है और हिंदी को थोपने की कोशिशों का विरोध करते हुए वह हिंदी का भी विरोध करता है. उनकी नजर में हिंदी एक खलनायक है और उन सभी लोगों के लिए खतरा है, जो हिंदी के अलावा दूसरी भाषाएं बोलते हैं.
क्या वास्तव में हिंदी एक खलनायक है जिससे डरने की जरूरत है? यह मानते हुए कि हिंदी को (या किसी भी चीज को) थोपने की कोई भी कोशिश किसी भी तरह से सही नहीं है और भारत जैसी भाषायी विविधता वाले देश में हिंदी को दूसरी भाषाओं से श्रेष्ठ बताने की किसी भी कोशिश को शक की निगाह से देखा जाना चाहिए, हमें हिंदी के साथ होनेवाले अन्याय के बारे में भी विचार करना चाहिए. सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि कोई भाषा अपने आप में अच्छी या खराब, हमलावर या खलनायक नहीं होती है. समस्या भाषा नहीं, भाषा की राजनीति है. भाषा की राजनीति करनेवाले हैं. दरअसल हिंदी इन दोनों अतिवादी पक्षों के बीच की जमीन पर कहीं खड़ी है. इस जमीन पर हिंदी के साथ करोड़ों लोग खड़े हैं. हिंदी देश की इस बड़ी आबादी के सपनों और संघर्षों की भाषा है, और वे सपने और संघर्ष सिर्फ इसलिए अवैध नहीं हो सकते क्योंकि उनकी इबारत हिंदी में लिखी गयी है.
हिंदी पर होनेवाली बहसों के बीच हिंदी के ऐतिहासिक योगदान को भुला दिया जाता है. यूं तो हिंदी की उम्र पीछे खिसकाकर करीब 1000 साल तक बताई जाती है, लेकिन हमारी हिंदी की, उस हिंदी की जिससे हमारा परिचय है, जिसे हम रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल में लाते हैं, जिसमें हम फिल्में देखते हैं, टेलीविजन धारावाहिक देखते हैं, किताबें, अखबार पढ़ते हैं, वह हिंदी एक जवान भाषा है. उम्र के मामले में द्रविड़ भाषाओं के सामने ही क्या या बंगाली या मराठी के सामने भी, जो उसी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से निकली भाषाएं हैं, जिससे हिंदी का ताल्लुक है, हिंदी की उम्र कुछ नहीं ठहरती. आज की हिंदी की उम्र सही मायने में सवा सौ साल और बहुत ढील दें तो डेढ़ सौ साल है. 20वीं सदी की शुरुआत में ही हिंदी का वह रूप स्थिर हुआ, जिससे हम आज परिचित हैं.
हिंदी की कम उम्र ही उसकी सबसे बड़ी खासियत है और इस तथ्य में ही हिंदी के ऐतिहासिक योगदान का दिलचस्प किस्सा छिपा है. आज भारत में हिंदी बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ को शामिल करनेवाले बहुत बड़े भौगोलिक प्रदेश की भाषा है और पिछली जनगणना के मुताबिक भारत की 44 फीसदी आबादी की मातृभाषा हिंदी है. इसके अलावा एक बहुत बड़ी आबादी है, हिंदी जिसकी दूसरी या तीसरी भाषा है. इतने बड़े इलाके की एक साझी भाषा बहुत हाल की ऐतिहासिक सच्चाई है.
यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर सिर्फ सवा सौ साल में हिंदी इतने बड़े क्षेत्र की और इतने लोगों की भाषा कैसे बन गई? क्योंकि जिस क्षेत्र को आज एक साझे संबोधन ‘हिंदी पट्टी’ के नाम से पुकारा जाता है, वह क्षेत्र अनेक भाषाओं और बोलियों का क्षेत्र रहा है. ऐतिहासिक तौर पर यह अनेक मातृभाषाओं का क्षेत्र रहा है. इनमें मैथिली, भोजपुरी, अवधी, बुंदेली, पहाड़ी, हरियाणवी, बघेली, राजस्थानी जैसी कई बोलियां और इन बोलियों की कई उपबोलियां शामिल हैं. ये मृत भाषाएं/बोलियां नहीं हैं, बल्कि इस्तेमाल में लाई जाती हैं. इन बोलियों के अपने भाषाई संघर्ष हैं. इनमें मैथिली तो संविधान की अनुसूचित भाषाओं में शामिल है और दूसरी भाषाएं, खासकर भोजपुरी को भी आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग की जा रही है.
वास्तव में यह ‘हिंदी पट्टी’ भाषायी रूप से एक समांगी प्रदेश न होकर एक बहुभाषी इलाका है. इन भाषाओं/बोलियों का इतिहास काफी पुराना है और इनमें अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली में तो शानदार साहित्य भी मिलता है. तुलसीदास और जायसी हिंदी के नहीं अवधी के कवि हैं. सूरदास ब्रजभाषा के कवि हैं. विद्यापति मैथिली के कवि हैं. इन सभी बोलियों को भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से हिंदी परिवार की भाषा भले बता दिया जाए, लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये सारी बोलियां एक दूसरे से इस हद तक अलग हैं कि दो बोलियां बोलनेवाले लोगों के लिए हिंदी का इस्तेमाल किए बगैर आपस में संवाद करना भी मुश्किल होता है. हिंदी इन बोलियों को मातृभाषा के तौर पर बोलनेवाले लोगों द्वारा अपनाई गई, सीखी गई भाषा है. वह एक पुल है, जिस पर चल कर बोलियों के बीच की दूरी को मिटाया जाता है.
हिंदी ने देश के आधे भू-भाग और आधी से ज्यादा आबादी को एक भाषा के आधार पर एकजुट करने का ऐतिहासिक काम किया. अगर हिंदी नहीं होती, तो भारत की एक ‘हिंदी पट्टी’ की जगह कई बोलियों के अपने इलाके होते. उन बोलियों के नाम पर नए-नए राज्यों के गठन के आंदोलन होते. यह एक भाषाई अराजकता की स्थिति को पैदा करता, जो देश की एकता के लिए खतरा होता. यह महज संयोग नहीं है कि जिस समय बंगाल में शुरू हुआ नवजागरण और राष्ट्रवादी आंदोलन पूरे देश का आंदोलन बन गया, उसी दौर में हिंदी भी अपने खड़ी बोली के दिल्ली-मेरठ के इलाके से निकलकर देश के एक बड़े हिस्से की भाषा के तौर पर स्थापित हो रही थी, या कहें कि स्थापित की जा रही थी. अगर उस दौर में हिंदी का उदय नहीं हुआ होता, तो शायद हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन का स्वरूप भी दूसरा होता. यह तथ्य कि हिंदी, ‘हिंदी पट्टी’ की स्वाभाविक भाषा न होकर, एक ऐतिहासिक जरूरत की पूर्ति के लिए बनाई गई और सीखी गई भाषा है अपने आप में बेहद दिलचस्प है, जिसकी ओर प्रायः ध्यान नहीं दिया जाता है.
उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में हिंदी एक बड़ा हथियार साबित हुई. और हिंदी की इस ताकत को खुद महात्मा गांधी ने समझा और स्वीकारा, जबकि वे एक गुजरातीभाषी, अंग्रेजी शिक्षित राजनेता थे. गांधी हिंदी के सबसे बड़े पैरोकार थे. दरअसल 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में हिंदी का विकास एक राजनीतिक आंदोलन बन गया. ब्रिटिशों के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन में हिंदी ने लोगों को एकजुट करने का काम किया. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अंग्रेजों के खिलाफ जो व्यापक जनांदोलन गांधी के नेतृत्व में चलाया गया, उसकी कल्पना हिंदी के बगैर नहीं की जा सकती.
ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाएं राष्ट्रवादी चेतना से महरूम थीं, लेकिन अपने बोलनेवालों की बड़ी संख्या के कारण हिंदी अवश्य ही अनायास ढंग से आजादी के आंदोलन के दौरान एक नेतृत्वकारी भूमिका में आ गयी थी और उसकी आवाज में सबसे ज्यादा डेसिबल की ताकत थी.
आजादी के बाद हिंदी को लेकर राजनीतिक पक्ष-प्रतिपक्ष चाहे जो भी रहा हो, लेकिन आजादी से पहले और कई मायनों में आजादी के बाद भी देश को एकजुट रखने में हिंदी की ऐतिहासिक भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर हम ऐसा करते हैं, तो यह हिंदी के साथ अन्याय होगा. हिंदी को खलनायक के तौर पर चित्रित करनेवालों को हिंदी की इस ऐतिहासिक भूमिका को अपनी आंखों से ओझल नहीं करना चाहिए.