हिंदी भाषा के 13 स्वरूप
(द्वितीय भाग)
कैसा है लोक-भाषाओं का स्वाद?
यह ‘हिंदी भाषा के 13 स्वरूप’ ब्लॉग का दूसरा भाग है, कृपया ब्लॉग का प्रथम भाग यहाँ पढ़ें। तो हम बात कर रहे थे हिंदी के उन स्वरूप की जिन्हें हम लोकभाषा कहते हैं और शब्दों के भाव, उनके रूपों का स्वाद हम “पान के किवाम” के जैसे ले रहे थे। अब आते हैं बाकी 7 प्रमुख लोक-भाषाओं की ओर:-
हरियाणवी – हरियाणा की इस बोली में लोक नाटक बहु-प्रचलित हैं। यह लोक-नाट्य “हरियाणवी स्वांग” के रूप में नाच-तमाशा को कहा जाता है जिसका अर्थ है “नकल करना”। स्वांग के माध्यम से पौराणिक, एतिहासिक तथा सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य किया जाता है। इसका प्रारंभ “आगे सुणो हवाल” कहकर किया जाता है। इस भाषा को पश्चमी हिंदी का स्वरूप भी माना जाता है। लोकगीतों में “कात कन्हाण के गीत” अत्यधिक विख्यात हैं। देखते हैं हरियाणवी भाषा की मिठास एक सरल गीत से:-
बहुत सताई ईखड़े रै तैने बहुत सताई रे
बालक छाड़े रोमते रै, तैने बहुत सताई रे
डालड़ी मैं छाड्या पीसना
और छाड़ी सलागड़ गाय
नगोड़े ईखड़े, तैने बहुत सताई रे
कन्नौजी – कन्नौज के आस-पास बोली जाने वाली यह भाषा भी पश्चमी हिंदी के अंतर्गत मानी जाती है। कन्नौजी की मिठास को लोकनाट्यों (जिसे नौटंकी भी कहा जाता है ) में भी देखा जा सकता है परन्तु कानपुर और हाथरस दोनों स्थानों की नौटंकी में भिन्न एवं विशेष शैलियाँ अभिहित हैं। आमतौर पर जो इस बोली में अंतर दिखता है वह शब्दों का नहीं बल्कि ध्वनियों का है– जैसे हिंदी के “ह” का उच्चारण यहाँ लुप्त रहता है (यथा जाहि बनता जाई) और “व”/“य” के स्थान पर क्रमशः “ब”/”ज” प्रयुक्त होता है (यथा वधू बनता है बधू एवं यश बनता है जश)। यहाँ अवधी के व्याकरण पद्धति का भी कई जगह प्रयोग दिखता है। निजी रूप से मुझे कन्नौजी बोली बहुत मीठी लगती है जैसे गंगाभक्त सिंह भक्त की यह रचना:-
बादरु गरजइ बिजुरी चमकइ
बैरिनि ब्यारि चलइ पुरबइया,
काहू सौतिन नइँ भरमाये
ननदी फेरि तुम्हारे भइया।।
गढ़वाली – उत्तराखण्ड में बोली जाने वाली यह भाषा पहाड़ी प्रवृति की भाषा है। गढ़वाली में संस्कारों के लोकगीत मंगल गीत की श्रेणी में आते हैं। इन गीतों में वर-वधु के प्रतीक सीता-राम और शिव-पार्वती को मंगल माना जाता है। एक अन्य विशेष लक्षण जो दिखता है वह यह कि इन गीतों में माँ अपने बच्चे को “कृष्ण” कह कर संबोधित करती है और पुत्र के जन्म को माता की तपस्या का फल माना जाता है, जैसे:-
तू होला मेरी तपस्या का जायो।
गढ़वाली में लोक गीतों की बहुत बड़ी वृहद परम्परा रही है जैसे कि मांगल गीत, झुमैलो गीत, बासंती गीत, चौमासा, बारामासा गीत आदि। देखते हैं योगीन्द्र पुरी द्वारा रचित एक गढ़वाली लोक गीत में इस बोली की मिठास जहाँ “भौंर” लक्षणा का अर्थ “प्रियतम” से है:–
पौन तू प्राण मेरी, दासि छौमें भि तेरी।
जैं दिशा भौंर मेरो, तैं दिशा भारी फेरो।।
कुमाऊँनी – यह भाषा भी उत्तराखंड की भाषा है परन्तु यह उत्तराखंड के अतिरिक्त असम, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भी बोली जाती है। इस बोली में सुमित्रानन्द पंत का बड़ा योगदान रहा है जिन्हें छायावाद का प्रवर्तक कवि भी माना जाता है। उनकी एक कविता में कुमाँऊनी कि मिठास देखी जा सकती है जैसे (इस छंद में “छ” का प्रयोग हिंदी के “है” जैसा है):
सल्ल छ, दयार छ, पई अयांर छ।
सबनाक फाडन में पुडनक भार छ।।
कुमाऊँनी में लगभग 25 उपबोलियाँ स्वीकृत हैं परन्तु अंचल के अनुसार बोलियों के रूप बदल जाते हैं और उनमें भी आपसी भिन्नता आ जाती है।
ब्रजभाषा – यह भाषा ब्रज की भाषा है जिसमें मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल आदि स्थान आते हैं जहाँ भगवान श्रीकृष्ण के लीला-स्थल सम्मिलित हैं। ब्रजभाषा विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक पूर्वी हिंदी के रूप में प्रयोग में आती थी और इसे साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा के सामान भी माना जाता था। इस भाषा में उत्तर दिशा के संतों/महंतों के साथ-साथ मारवाड़ की मीरा भी लिखती थीं और दक्षिण एवं मध्य भारत के नाथ संप्रदायी भी लिखते और भजते थे। रीति कालीन कवि जैसे कि सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानन्द, बिहारी आदि ने ब्रज में ही लिखा है। सूरदास नें कृष्ण के बाल्यरूप का अति सुन्दर और सजीव वर्णन किया है जिसमें ब्रजभाषा की छटा विशेष रूप से देखी जा सकती है (इन छंदों में हिंदी के “मेरे ” शब्द के स्थान पर “मोहे या मोहिं” शब्द का प्रयोग दिखाई देता है):-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई,
यह अजहूँ है छोटी।
खड़ीबोली – खड़ीबोली को साहित्यिक वजूद देने का पूर्ण श्रेय अमीर खुसरो को जाता है। खड़ीबोली का दूसरा नाम हिन्दवी भी है। तकरीबन 750 साल पहले जब सभी कवि या शायर उर्दू, अरबी और फ़ारसी में अपनी कलम चला रहे थे तब अमीर खुसरो ने लोकभाषा खड़ीबोली पर अपने गीत, मुकरियाँ, पहेलीयाँ, दोहे, दो-सुखने आदि लिख कर खड़ीबोली के साहित्य मार्ग को प्रशस्त किया था। खड़ीबोली की एक खास पहचान है कि अंगिका, राजस्थानी, मगही आदि में प्रयुक्त होने वाले “रे” संबोधन की जगह खड़ीबोली में “रै एवं री” सम्बोधन का प्रयोग होता है। उदाहरण के तौर पर देखते हैं खुसरो द्वारा रचित खड़ीबोली का यह गीत:-
ऐ री सखी मोरे पिया घर आए, भाग लगे इस आँगन को।
बलबल जौऊँ मैं अपने पिया को, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सूरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को।।
बुन्देली – बुन्देली बुंदेलखंड की भाषा है जिनमें “संचत गीत” प्रमुख रूप से प्रचलित हैं। संचतगीत मातृ भावना के प्रतीक हैं जिनमें माँ अपने बच्चे को कान्हा कह कर संबोधित करती है। बुंदेलखंड में सागर, दमोह, ग्वालियर, झाँसी, जबलपुर, कटनी, पन्ना, झाँसी आदि प्रमुख अंचल हैं। बुन्देली को सब से मीठी भाषा होने का भी गर्व प्राप्त है और किसी भी प्रकृति वर्णन के लिए बुन्देली ने अपने पास एक नहीं अनेक शब्द रखें हैं। इन शब्द में मधुरता के रूप भी दिखते हैं तो कहीं अक्खड़पन भी दिखाई देता है। बुन्देली गीतों में सोहर गीत, युगल गीत, सावन गीत, वर्षा गीत आदि प्रमुख रूप से प्रचलित हैं। देखते हैं बुन्देली लोक-गीत की मिठास इस गीत में जिसको बुन्देली लोक गायक देशराज पटेरिया ने बड़े खूबसूरत तरीके से गाया है:–
तुमाये घरे आके बलम हम पछताने।
कैसे के कट जाए उमरिया राम जाने।।
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